Essay on Swami Vivekanand in Hindi | स्वामी विवेकानन्द पर निबंध

Essay on Swami Vivekanand in Hindi स्वामी विवेकानन्द पर निबंध, कई बार ऐसा होता है जब स्वामी विवेकानंद जयंती है और नेताजी को स्वामी जी के बारें में कुछ पता ही नहीं है।

स्वामी विवेकानंद की जीवनी से संबंधित एक लेख यहां लिखा गया है जिससे आप सभी को बहुत कुछ सीखने को मिलेगा। ऐसी ही जानकारी के लिए Guruji Tips Blog के साथ बने रहिए।

जिस समय हमारा देश गुलामी की जंजीरों से जकड़ा हुआ बड़ी ही विवशता में अपना धर्म, भाषा, शिक्षा, सभ्यता तथा आध्यात्मिकता बल खोता जा रहा था ठीक उसी समय भारत की भूमि पर एक ऐसे सितारे का उदय हुआ जिसने भारत की भूमि को धरातल से उठाकर आसमान की बुलंदियों पर रख कर दिया।

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देश को विश्व में सम्मानपूर्ण स्थान दिलाने वाले महापुरूषों में स्वामी विवेकानन्द का भी नाम शामिल है। भारतीय सभ्यता व संस्कृति के महान प्रहरी और सभी धर्मों का सम्मानकरने के साथ – साथ वेदांत के प्रवर्तक स्वामी विवेकानन्द हर हाल मे महान हैं।

1893 में अमेरिका में आयोजित विश्व धर्म सम्मेलन में हिन्दू धर्म का प्रतिनिधित्व करते हुये स्वामी विवेकानंद ने शून्य पर अपना व्याख्यान प्रस्तुत कर विश्व में यह सिध्द कर दिया कि विश्व का कोई भी महान कार्य भारतीय कर सकते हैं और ​बौध्दिक, धार्मिक, चारित्रिक तथा दार्शनिक क्षेत्र में भारत जितना भी उत्तन है उतना विश्व में कोई और देश नही हैं। 

स्वामी विवेकानन्द के बारे में हावर्ड विश्वविद्यालय के विख्यात प्रोफेसर जे.एच.राइट ने लिखा है “To ask you Swami, for your credential is like asking the sun to state its right to shine“.

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Essay on Swami Vivekanand Biography

बाल्यावस्था में नरेन्द्रदत्त और बाद में स्वामी विवेकानन्द के नाम से विख्यात अग्रदूत का जन्म 12 जनवरी 1863 को कलकत्ता के एक परिवार में हुआ।

स्वामी विवेकानन्द के पिता का नाम विश्वनाथ दत्त तथा माता का नाम भुवनेश्वरी देवी था। विश्वनाथ दत्त कलकत्ता हाईकोर्ट में वकील थे।

पांच वर्ष की आयु में शिक्षा के लिये नरेन्द्रदत्त को विद्यालय भेजा गया। 1879 में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण कर कलकत्ता के जनरल असेम्बली कॉलेज से बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की।

नरेन्द्र दत्त पर अपने पिता के पश्चिमी व सांस्कृतिक विचारों का प्रभाव तो पड़ा किंतु माता जी के धार्मिक आचार – विचारों का गहरा प्रभाव अवश्य पड़ा।

इसी कारण नरेन्द्र दत्त जीवन के आ​रम्भिक दिनों से ही धार्मिक प्र​वत्ति के हो गये। धर्म की जिज्ञासा और अशांत मन की शांति के लिये नरेंद्र दत्त ने संत रामकृष्ण परमहंस जी की शरण ली।

स्वामी परमहंस ने नरेन्द्र दत्त की योग्यता को कुछ ही समय में परख लिया। परमहंस जी नरेंद्र दत्त की योग्यता व गुणों को देख कर रहा कि तू कोई साधारण मनुष्य नही हैं।

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ईश्वर ने तुझे समस्त मानव जाति को कल्याण के लिये इस भूमि पर भेजा है। नरेन्द्र दत्त ने स्वामी रामकृष्ण की इस बात को सुनकर अपनी भक्ति और श्रध्दा देश के ​प्रति अर्पित करना ही अपना कर्तव्य समझा और वे परमहंस जी के परम शिष्य और अनुयायी बन गये।

पिता की मृत्यु के बाद घर – गृहस्थी का भार संभालने के बजाय नरेन्द्र दत्त ने सन्यास लेने का विचार किया। स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने नरेन्द्र दत्त को सन्यास नही लेने की बात कहते हुये कहा कि तू स्वार्थी मनुष्य की तरह केवल अपनी मुक्ति की इच्छा कर रहा है।

संसार में लाखों लोग दु:खी हैं। उनका दु:ख दूर करने तू नहीं जाऐगा तो फिर कौन जाऐगा? फिर इसके बाद तो नरेंद्र दत्त ने स्वामी जी से शिक्षित – दीक्षित होकर यह उपदेश प्राप्त किया कि सन्यास का वास्तविक उद्देश्य मुक्त होकर लोक सेवा करना हैं।

अपने ही मोक्ष की चिंता करने वाला सन्यासी स्वार्थी होता है। इस पर नरेन्द्र दत्त ने अपना यह विचार त्याग दिया और नौकरी की तलाश में जुट गये। उन्हे नौकरी नहीं मिली जिस कारण उन्हे काफी दु:ख हुआ।

सन 1881 में नरेन्द्र दत्त ने सन्यास ले लिया और स्वामी विवेकानन्द बन गये। 31 मई 1886 को स्वामी रामकृष्ण परमहंस की मृत्यु हो गई।

उनकी मृत्यु के बाद स्वामी विवेकानन्द कलकत्ता छोड़कर उत्तर में स्थित वराद नगर के आश्रम मे रहने लगे। यहां उन्होने दर्शन एवं अन्य शास्त्रों का ​विधिवत गंभीर अध्ययन किया।

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दो वर्ष की तपस्या और अध्ययन के उपरांत विवेकानन्द भारत की यात्रा पर निकल पड़े। अपने संबोधन से उन्होने सम्मेलन में भाग ले रहे लोगों में अपनी एक अलग पहचान बनाई और यह जता दिया कि कम आयु होने के बावजूद वे काफी ज्ञान रखते हैं।

इस सम्मेलन से प्रेरित हो स्वामी जी ने अन्य यूरो​पीय देशों की भी यात्रा की। इस यात्रा के दौरान उन्होने अपना ज्यादातर समय अमेरिका और इंग्लैंड में बिताया।

वहां रहकर उन्होने भाषण, वाद—विवाद, लेखों तथा वकत्व्यों द्वारा हिन्दू धर्म का प्रचार किया। चार वर्ष तक विदेशों में हिन्दू धर्म का प्रचार कर स्वामी जी स्वदेश लौटे।

यहां आकर उन्होने कलकत्ता मे रामकृष्ण मिशन की स्थापना की। इसके बाद भी कई बार स्वामी विवेकानन्द हिन्दू धर्म के प्रचार प्रसार के लिये विदेश गये।

उनकी ख्याति भारत मे ही नही अपितु विदेशों में भी थी। यही कारण है कि उन्हे कई विदेशी धर्म संगठनों ने व्याख्यान देने के लिये आमंत्रित किया।

स्वामी विवेकानन्द के कारण ही इंग्लैंड, फ्रांस, जापान सहित कई देशों में वेदांत प्रचारर्थ संस्थान काम कर रहे हैं। बीमारी के कारण 4 जुलाई 1902 की रात व हमेशा के लिये चिर – निद्रा में सो गये।

स्वामी जी के हिन्दुत्व पुनर्जागरण एवं आध्यात्मिक विचारों ने राष्ट्रीय आंदोलन को एक विचित गति एवं नवीन दिशा प्रदान की। इनकी ओजपूर्ण वाणी ने भारतीय जनता एवं राष्ट्रवादियों में एक विद्युत शक्ति का संचार किया।

जिसके परिणाम स्वरूप वे अपनी संपूर्ण शाक्ति लगाकर गुलामी की जंजीस तोड़ने के लिये प्रयत्नशील हो गये। परिणति अंततोगत्वा 1947 में स्वतंत्र भारत के रूप मे हुई।

स्वामी जी ने भारतीयों के आत्म विश्वास को प्रबल बनाने के लिये एवं राष्ट्र आंदोलन को एक नई दिशा देने के लिये बड़े ओजपूर्ण शब्दों का प्रयोग किया।

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उनका कहना था कि संसार का इतिहास उन थोड़े व्यक्तियों का इतिहास है जिनमे आत्मविश्वास था। यह विश्वास अंत: स्थिति देवत्व को ललकार प्रकट कर देता था, तब व्यक्ति कुछ भी कर सकता है, सर्वसमर्थ हो जाता है।

असफलता तभी होती है जब तुम अंत:स्थ अमोघ शक्ति को अभिव्यक्त करने का यथेष्ट प्रयत्न नही करते। जिस क्षण व्यक्ति या राष्ट्र आत्मविश्वास खो देता है उसी क्षण उसकी मृत्यु आ जाती है। स्वामी जी ने एकता एवं अखंडता पर ज्यादा जोर दिया।

दार्शनिक इतिहास मे महा वटवृक्ष में ऐसी डाल सदियों के बाद फूटती है जो समाज में विकास की दिशा को गति प्रदान करती है।

मनुष्य जब अपने मानवता के मूल्यों को भूलकर राक्षसी प्रवत्ति का मार्ग प्रशस्त करता है तब ऐसे युग अवतारी पुरूष का अवतार होता है और ये युग अवतारी पुरूष समाज को अपनी वाणी सुनने के लिये बाध्य करते हैं और बाध्य होकर व्यक्ति इनकी वाणी सुनता हुआ अपनी पूर्व की स्थिति में आने का प्रयत्न करता है।

विश्व का इतिहास साक्षी है। रामकृष्ण, बुध्द, महावीर, गुरूनानक, ईसा मसीह तथा पैगंबर आदि इसके ज्वलंत उदाहरण हैं।

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Ashu Garg

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